भगवद्-गीता (Bhagvad Geeta) के भगवान के महावाक्य :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥ गीता श्लोक 13.2॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर को 'क्षेत्र' कहते' है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् आत्मा कहते हैं।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷ गीता श्लोक 15.16॥
भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के पुरुष है क्षर और अक्षर। जो जीव (शरीर) हैं वह क्षर यानि नाशवान है और जो आत्मा है वह अक्षर यानि अविनाशी है৷
यहाँ क्षर और अक्षर की बात परमात्मा ने बताई है जिसमें परमात्मा कहते है कि क्षर यानि विनाशी और अक्षर यानि अविनाशी अर्थात् परमात्मा ने यहाँ शरीर को विनाशी बताया है और आत्मा को अविनाशी बताया है यानि शरीर (Body) और आत्मा (Soul) दो अलग-अलग है। शास्त्रों में इसका अर्थ कुछ अलग ले लिया है जिससे आज कई सारे लोग जीव और आत्मा को समझ ही नहीं पाते है।
परमात्मा ने आत्मा के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहाँ है कि जीव यानि शरीर (Body) में जब आत्मा (Soul) का प्रवेश होता है तब जीवात्मा (Human Being) कहाँ जाता है अर्थात् जब यह चैतन्य आत्मा शरीर में प्रवेश करती है तब ही मनुष्य की सांसे चलती है और आत्मा शरीर से निकल जाती है तब मृत्यु हो जाती है। अब समझने की बात है कि मृत्यु आत्मा की नहीं होती है क्योंकि वह तो अजर, अमर, अविनाशी है। तो कहेने का भावार्थ यह है कि आत्मा शरीर में होती है तो जो भी कार्य होते है वह आत्मा के द्वारा ही होते है, शरीर तो एक माध्यम है जिसके द्वारा आत्मा कार्य करती है परंतु बिना ज्ञान के मनुष्य को सिर्फ बाहरी शरीर ही दिखता है, मनुष्य उस चैतन्य ज्योर्तिबिन्दु स्वरुप आत्मा का भान भूल गया है। अब परमात्मा कहते है कि तुम एक आत्मा हो, तुम अपने ज्योर्तिबिन्दु (Light) स्वरुप को पहचानो।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ गीता श्लोक 2.25॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ गीता श्लोक 13.34॥
उपरोक्त श्लोक 2.25 से पता चलता है कि आत्मा अव्यक्त यानि अविनाशी है, यह आत्मा अचिन्त्य यानि सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म बिन्दु को ही कहाँ जाता है, तो आत्मा का स्वरूप ज्योर्तिबिन्दु है।
फिर श्लोक 13.34 में परमात्मा कहते है कि जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है यानि आत्मा इस शरीर में भृकुटी के मध्य में विराजमान होकर सारे शरीर को प्रकाश देता है यानि पूरे शरीर का नियंत्रण करता है।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 12.8৷৷
भावार्थ : परमात्मा कहते है - हे वत्स, तू मन को मुझमें लगा और बुद्धि को मुझ से युक्त कर अथवा तू अपनी बुद्धि मेरे अर्पित कर, इससे तुम उच्च स्थिति को प्राप्त करोगे, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
वास्तव में मन, बुद्धि आत्मा की ही सूक्ष्म इंद्रियाँ है, मन में संकल्प उत्पन्न होते है और बुद्धि उसका निर्णय करती है। परमात्मा कहते है तुम अपने मन यानि अपने संकल्पो को मुझे समर्पित कर दो और मुझ से योगयुक्त होकर यानि आत्मा की स्थिति में स्थित होकर कर्म करो तो तुम्हारे कर्म भी श्रेष्ठ होंगे और तुम उच्च स्थिति को प्राप्त करोगे।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ गीता श्लोक 13.35॥
भावार्थ : परमात्मा कहते है, इस प्रकार क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति (शरीर) से मुक्त होने को जो पुरुष (आत्मा) ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म (परमधाम) यानि मुक्ति को प्राप्त होते हैं। कहने का भावार्थ यही निकलता है कि जो इस विनाशी शरीर से अलग अपने आप को अविनाशी, चैतन्य आत्मा समझता है वह इस जड़ शरीर के बंधन से अपने को मुक्त अनुभव करता है। इसीलिए परमात्मा ने कहाँ है कि "देही-अभिमानी" अर्थात् "आत्म-अभिमानी" बनो।
कई लोग आत्मा और परमात्मा को एक ही समझते है लेकिन परमात्मा ने वह भेद के बारे में भी स्पष्टिकरण दिया है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ৷৷ गीता श्लोक 15.17॥
भावार्थ : तीनो लोको में जो अक्षर पुरुष है उनमें से परमात्मा सबसे उत्तम पुरुष का नाम है৷
इस सम्पूर्ण जगत में जो आत्माएं है उन सब में जो श्रेष्ठ आत्मा है उसे परमात्मा कहाँ जाता है৷ वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में से उंच ते उंच लोक परमधाम में निवास करते है और कल्प के अंत में (सृष्टि विनाश के समय) इस धरा पर अवतरित होकर सभी आत्माओं को सत्य ज्ञान देकर सुख, शांति से भरपुर करते है৷
कई लोग आत्मा ही परमात्मा ऐसा कहते है परंतु यह गलत है, वास्तव में परमात्मा भी एक आत्मा है परंतु वह अन्य आत्माओं से विशेष है, परम है इसीलिये उन्हें परमात्मा कहाँ जाता है৷
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ৷৷ गीता श्लोक 15.18॥
भावार्थ : परमात्मा क्षर से परे और अक्षर से उत्तम अर्थात् परमात्मा शरीरधारी नहीं है और सर्व पुरुष यानि आत्माओं में उत्तम है इसीलिये उन्हें पुरुषोत्तम (पुरुष+उत्तम) भी कहाँ जाता है৷
अत: आत्मा और परमात्मा एक हो नहीं सकते৷
परमात्मा कहते है आत्मा और परमात्मा दोनों अति सूक्ष्म है। आकार में दोनों एक जैसे ही है, दोनों का स्वरुप सुक्ष्म ते सुक्ष्म ज्योर्तिबिन्दु हैं लेकिन परमात्मा गुणों के सिंधु है। परमात्मा ज्ञान के सागर है। तभी तो परमात्मा को मनुष्य आत्माओंं को ज्ञान देने के लिए ईस धरा पर अवतरित होना पड़ता है लेकिन परमात्मा कहते है - मैं जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता हूँ, आतमाएं जन्म-मरण के चक्र में आने से अपने को और मुझ बाप को भूल गई है। मैं ही तुम आत्माओं का पिता हूँ।
जब आत्मा का ज्ञान होता है तब ही परमात्मा का ज्ञान होता है और इसी ज्ञान से मनुष्य की सद्गति होती है। मनुष्य धन-दौलत और सुख की आश में चाहे कितना ही भटक भटक करे परंतु जब तक मनुष्य को अपने पिता परमात्मा का परिचय नहीं है तब तक उसे सच्चे सुख व शांति की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती।
आत्मा का ज्ञान होना अर्थात् "मैं आत्मा हूँ" (I am a Soul) यह पक्का निश्चय होना और यह निश्चय होता है सिर्फ ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ने से यानि इस समय परमात्मा जो "सच्चा गीता ज्ञान" या "राजयोग" की शिक्षा देते है उसे धारण करने से ही मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। यह शिक्षा "प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय" द्वारा नि:शुल्क दी जाती है। यह कोर्ष सिखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें या आप यह कोर्ष "प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरिय विश्वविद्यालय" के किसी भी सेंटर पर जाकर नि:शुल्क सिख सकते है।
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