God Shiva - परमपिता शिव परमात्मा

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        अक्सर मनुष्य परमात्मा को पाने के लिए कई उपाय करता है। प्राचिन काल से परमात्मा की खोज में कई साधु-संत, ऋषि-महर्षी अपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर सन्यास लेते आए है। आज भी संसार में हर मनुष्य के मन में परमात्मा के बारे में कई सारे प्रश्न उद्भव होते है कि परमात्मा या भगवान कौन है, कहाँ रहता है, क्या करता है? ईन प्रश्नो का उत्तर मिलना हर किसी के लिए संभव नहीं है, तभी आज संसार में लोग अनाथ हो गए है। अनाथ होने से यह मतलब है कि किसी को भी अपने सही पिता की परख नहीं है। पिता सिर्फ़ वही नहीं जिसने हमें जन्म दिया, पिता तो उस परमपिता को कहा जाता है जिसके हम रुहानी बच्चे है। कहने का अर्थ है शरीर के साथ संबंध निभाने वाले लौकिक पिता को तो जानते है लेकिन हम रुह (आत्मा) के साथ संबंध निभाने वाले उस रुहानी पारलौकिक "परमपिता परमात्मा" को भूल गये है। उसको भूलने के कारण उसके नाम एवं रुप को भी भूल गये है।

        परमात्मा जिसको सारी दुनिया कई नामो से जानती है - ईश्वर, अल्लाह, खुदा, God, भगवान, परमात्मा, परवरदिगार, परमेश्वर आदि..। लेकिन उनके सत्य और स्पष्ट परिचय को भूल गये है।

आज से 2500 साल पहले द्वापरयुग में परमात्मा को याद करने के लिए सबसे पहले सोमनाथ मंदिर की स्थापना हुई थी क्योंकि उसके पहले सतयुग और त्रेतायुग जहाँ सुख और वैभव का राज्य होता है वहाँ तो परमात्मा को याद करने की दरकार ही नहीं होती। सोमनाथ मंदिर गुजरात राज्य में सौराष्ट्र के समुद्र तट पर स्थित है। जहाँ आज भी "परमात्मा शिव" की शिवलिंग के रुप में पूजा होती है। सोमनाथ मंदिर परमात्मा "शिव" की ही याद दिलाता है। यह भारत के १२ ज्योतिर्लिंगों में से सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग का यादगार है।

 "ज्योति" यानि परमात्मा "ज्योति स्वरुप" है और "लिंग" यानि "प्रतिक"।

ज्योतिर्लिंग" ज्योति स्वरुप परमात्मा शिव का ही प्रतिक है।
   
ज्योति शब्द दर्शाता ही है कि परमात्मा "शिव" निराकार है। निराकार का अर्थ है कि परमात्मा शरीरधारी नहीं है परंतु उनका रुप प्रकाशपुंज (Light) की तरह ज्योर्तिबिन्दु रुप है, ईसीलिए मंदिर में दिये को प्रगटाने की प्रथा है। जहाँ ज्योतिर्लिंग की पुजा होती है वहाँ शिव निराकार को ही याद किया जाता है, लेकिन आज निराकार, ज्योति स्वरुप परमात्मा को भूल जाने की वजह से परमात्मा के प्रतिक शिवलिंग को ही भगवान मान लेने से मनुष्य अज्ञानी बन पाप कर्म करने लगा है। परमात्मा की पत्थर रूप में पूजा करना या उनके रूप को न जानना अज्ञानता ही है। परमात्मा से सच्ची प्राप्ति तब होती है जब हम उनके सत्य स्वरूप को पहेचाने और उन्हें उसी रूप में याद करें।
        यहाँ एक और बात स्पष्ट करने योग्य है कि कई लोग शिव और शंकर को एक मानते है, वास्तव में शंकर तो देहधारी देवता है परंतु "शिव" निराकार परमात्मा को कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर यह तीनोंं देवताएँ "परमपिता परमात्मा शिव" की ही रचना है। तभी तो "शिव परमात्माएँ नम:" और "शंकर देवताएँ नम:", "ब्रह्मा देवताएँ नम:", "विष्णु देवताएँ नम:" कहाँ जाता हैं।

 

हर धर्म में परमात्मा को निराकार ही माना गया है। क्राईस्ट ने कहा God is Light, मुसलमान भी कहते है अल्लाह नूर (प्रकाश) है, पारसी लोग भी अखंड ज्योत की पूजा करते है जो कि परमात्मा के निराकार होने का ही ईशारा करते है। बुद्ध ने भी ध्यान में बैठकर निराकार का ही ध्यान किया सभी धर्म निराकार परमात्मा को ही मानते है, तो कहने का अर्थ यही निकलता है सभी धर्म के लोग एक ही निराकार परमात्मा की संतान है। ईसी नाते आपस में भाई-भाई है। कहते भी है - "हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई" लेकिन इसका अर्थ न समझने के कारण आपस में लड़ते रहते है।   

श्रीमद भगवद्द-गीता भी परमात्मा के निराकार स्वरूप को दर्शाती है

भगवद्द-गीता के अध्याय - ११, श्लोक - १२ में संजय परमात्मा के रुप का वर्णन करते हुए धृतराष्ट्र को कहता है,

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ गीता श्लोक 11.12 ৷৷

भावार्थ : आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो। 

फिर अध्याय - ११, श्लोक - १७ और १८ में अर्जुन कहता है,

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌ ।

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ ॥ 11.17 

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।

त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ 11.18 ৷৷

भावार्थ : आपको मैं सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ, आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् परम परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैंआप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं

ऐसा है उस परमपिता परमात्मा का स्वरूप

  परमात्मा = परम + आत्मा

यानी परमात्मा सर्व आत्माओं में परम है, श्रेष्ठ है, उच्च ते उच्च है। परमात्मा जो सर्व गुणों और शक्तियों से भरपूर है, दिव्य - तेजोमय है।

अध्याय - ११, श्लोक - ४३ में अर्जुन कहता है,

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ गीता श्लोक 11.43 ৷৷

भावार्थ : आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अनुपम प्रभाववाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं हैं, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है।

  

लेकिन कितने दु:ख की बात है कि आज मनुष्य ने उस दिव्य-तेजोमय, पारलौकिक परमपिता परमात्मा को ठीक्कर-भीत्तर में कह दिया है, कहते है पत्थर में भगवान है। जरा सोच के तो देखो भगवान पत्थर में से ज्ञान दे सकता है क्या? पत्थर में से कल्याण कर सकता है क्या? आत्मा जब शरीर में प्रवेश करती है तब शरीर में चेतना आती है, अगर परमात्मा पत्थर में हो तो पत्थर भी चैतन्य हो जाना चाहिये बल्कि ऐसा होता नहीं है अर्थात् परमात्मा इस पांच तत्व के बने जगत में नहीं बल्कि सबसे उपर परमधाम जिसे सातवाँ आसमान या मोक्षधाम कहाँ जाता है वहाँ अपने निराकारी स्वरुप में रहते है परमात्मा को भी मनुष्यो के कल्याण के लिए शरीर की आवश्यकता होती है परंतु जैसे कि परमात्मा के महावाक्य है कि "मैं अजन्मा हूँ" तो परमात्मा किसी गर्भ से जन्म नहीं लेते है, वह तो कलियुग के अंत में एक वृद्ध व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर (अवतरित होकर) मनुष्यात्माओं को ज्ञान सुनाते है, उनका कल्याण करते है। परमात्मा के अवतरण यानी "दिव्य जन्म" की यादगार में ही "महाशिवरात्री" मनाई जाती हैं

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ गीता श्लोक 4.7 ৷৷

भावार्थ : भगवान कहते है - हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ गीता श्लोक 9.24॥

भावार्थ : क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का रचयिता मैं ही हूँ, परंतु मैं जो हूँ और जैसा हूँ, लोग मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, अत: मैं ही अपना परिचय स्वयं ही आकर बताता हूँ।

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ गीता श्लोक 10.2॥

भावार्थ : मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने (दिव्य जन्म) को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।


एक ऐसा अनोखा विद्धालय जहाँ पढ़ा रहे है स्वयं "निराकार शिव भगवान"

सब तीर्थों में तीर्थ महान, आबू में आये शिव भगवान

      अभी वह समय चल रहा है जब परमधाम निवासी "परमात्मा शिव" (God Shiv) स्वयं परमधाम से ईस धरा पर प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर (दिव्य या अलौकिक जन्म लेकर) सच्चा गीता-ज्ञान सुना रहे है। यहाँ पढ़ाने वाला न तो कोई गुरु है और न ही कोई संत महात्मा। परमात्मा ने स्वयं ही इस ईश्वरीय विश्वविद्धालय की स्थापना की है और स्वयं परमात्मा ही सच्चा गीता-ज्ञान सुना रहे है, जिसे सुनने से और पुरूषार्थ कर अपने जीवन को परमात्मा की श्रीमत अनुसार दिव्य गुणों से भरपूर करने से हर कोई मनुष्यात्मा आने वाली सतयुगी दुनिया में २१ जन्मों के लिये स्वर्ग का सुख प्राप्त कर सकती हैं। यही परमात्मा के अवतरण और गीता ज्ञान का उद्देश है। 

अब वो पल आया है जब मिट जायेगा ये अज्ञान रूपी अंधेरा, 

अब होगा इस धरती पर सतयुगी सवेरा।

ना कर अब देर तु हे इंसान ,

भर ले तु अपनी झोली परमात्मा को पहचान,

आया है वो आबु पर्वत पर,

करने मनुष्यात्माओं का श्रृंगार।

परमात्मा अभी आने वाली सतयुगी दुनिया की स्थापना करा रहे है और यही उनका कर्तव्य भी है। परमात्मा सभी मनुष्यात्माओं को दैवी दुनिया में जाने के लिए दिव्य गुणों से शृंगार करा करे है, तो हर एक मनुष्यात्मा को चाहिए कि वह अपने जीवन को इन दिव्य गुणों से परिवर्तित करें। तो अब समय है उस परमात्मा को पहचानो और अनुभव करो जो वह करा रहा है क्योंकि अभी नहीं तो कभी नहीं।

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God of Gods



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