गीता योग या राजयोग
श्रीमद् भगवद्-गीता का प्राधान विषय "योग" ही है। परमात्मा ने गीता में "राजयोग" का वर्णन करते हुए विश्व की सर्व मनुष्यात्माओं को यही संदेश दिया है कि "तुम आत्म स्थिति में स्थित होकर अपने मन-बुद्धि को सहज ही मुझ निराकार परमात्मा में अर्पन कर दो, इससे ही तुम्हारे विकर्म विनाश होंगे और तुम मुक्ति-जीवनमुक्ति को पाओगे।" इसे ही भगवान ने "राजयोग" कहा है।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ गीता श्लोक 6.12 ৷৷
भावार्थ : परमात्मा कहते है - आसन पर बैठकर यानि आत्मिक स्थिति में स्थिर होकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।
भगवान ने कहा है मनुष्य को योगाभ्यास आत्म-शुद्धि के लिए, मन पर नियंत्रण और कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिये करना चाहिये। दूसरे शब्दों में आत्म-शुद्धि योग का मुख्य लक्ष्य है। इस पवित्रता द्वारा ही मनुष्य को सुख और शांति की प्राप्ति होती है।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ गीता श्लोक 16.21 ॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ गीता श्लोक 16.22 ॥
भावार्थ : काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन नरक के द्वार है। आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अत: इन तीनों को त्याग देना चाहिए। परमात्मा कहते है - हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है। इससे वह परमगति यानि मुक्ति-जीवनमुक्ति को प्राप्त करता है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ गीता श्लोक 7.19 ৷৷
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ गीता श्लोक 7.20 ৷৷
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ गीता श्लोक 7.21 ৷৷
भावार्थ : बहुत जन्मों (८४ जन्मों) के अंत के जन्म में परमात्मा जिस मनुष्यात्मा के शरीर में प्रवेश कर ज्ञान देते है उसे कोटो में कोई दुर्लभ आत्मा ही प्राप्त करती है। परमात्मा कहते है - मैं स्वयं अपनी प्रकृति को वश में कर जिस शरीर में प्रवेश करता हूँ, उस शरीर में प्रवेश किये हुए मुझ परमात्मा को न जानते हुए मनुष्य अन्य भोग-कामनाओं की प्राप्ति हेतु अन्य देवी-देवताओं को पूजते है, जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजता है, उन सभी भक्त की श्रद्धा उसी देवता के प्रति स्थिर रहती हैं।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ गीता श्लोक 7.22 ৷৷
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ৷৷ गीता श्लोक 7.23 ৷৷
भावार्थ : वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त, अन्त में वे मुझ को ही प्राप्त होते हैं।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ गीता श्लोक 10.3 ॥
भावार्थ : परमात्मा कहते है - लोकमहेश्वरम् यानि सर्व लोको मैं उंच ते उंच लोक (परमधाम) में रहने वाले मुझ निराकार, अजन्मा (जन्मरहित), अनादि परमात्मा को मैं जो हूँ, जैसा हूँ उसी रुप अर्थात् ज्योतिर्बिंदु (Point of Light) रुप में जो जानता है, वह ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ৷৷ गीता श्लोक 8.8 ৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश रूप (ज्योतिर्बिंदु रूप) दिव्य पुरुष अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ৷৷ गीता श्लोक 8.9 ৷৷
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ৷৷ गीता श्लोक 8.10 ৷৷
भावार्थ : जो पुरुष यानि आत्मा सर्वज्ञ, अनादि, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म (Point of Light), अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप (ज्योतिर्बिंदु रूप) और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्द परमेश्वर का स्मरण करता है वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल (कल्प के अंतिम समय) में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
एक योगी या ज्ञानी कैसा होना चाहिये और परमात्मा को कौन प्रिय है
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ गीता श्लोक 6.28 ৷৷
भावार्थ : वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुख पूर्वक परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ৷৷ गीता श्लोक 7.17 ৷৷
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ गीता श्लोक 7.18 ৷৷
भावार्थ : परमात्मा कहते है - नित्य मुझ में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझ को तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है। ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है - ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति स्वरूप मुझ में ही अच्छी प्रकार स्थित है।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ गीता श्लोक 10.9 ॥
भावार्थ : परमात्मा कहते है - जिसने मुझ परमात्मा को जान लिया वह योगी पुरुष सदा ही मुझ ज्योति स्वरुप परमात्मा में अपने मन को लगाता है और अपने प्राणोंं को मुझ को समर्पित कर देता है और मुझ परमात्मा में ही निरंतर रमण करते हुए मुझ में ही संतुष्ट रहता हैं। तथा वह योगी पुरुष नित्य मेरे गुण और प्रभाव को जानते हुए औरो को भी ज्ञान सुनाकर संतुष्ट करता है।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ गीता श्लोक 12.16 ৷৷
भावार्थ : जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ৷৷ गीता श्लोक 12.17 ৷৷
भावार्थ : जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है।
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